अर्जुन का संकट और गीता की सीख – गाँव की बोली में
प्रस्तावना
भाइयो-बहिनो, महाभारत कोई सीधी-सादी लड़ाई की दास्तान नहीं है। ये तो ज़िंदगी के गहरे सवालों का जवाब देने वाला बड़ा ग्रंथ है। इसमें सबसे खास जगह है श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद। हम सब उसे आज श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से जानते हैं।
कुरुक्षेत्र के मैदान में, जहां दोनों तरफ के योद्धा खड़े थे, वहीं अर्जुन को बड़ा संकट घेर लेता है। ये वही अर्जुन हैं, जो दुनिया के सबसे बड़े धनुर्धर माने जाते थे। जिनको कोई हरा नहीं सकता था। फिर भी वे अचानक क्यों डगमगा गए? यही कहानी हमें आज की ज़िंदगी की भी सीख देती है।
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| अर्जुन का युद्ध से संकोच – गीता के पहले अध्याय की गहरी सीख |
युद्धभूमि का मंजर
जब शंख बजा, बिगुल बजा, दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा –
“हे माधव! रथ को बीच में ले चलो ताकि मैं देख सकूँ किससे लड़ना है।”
कृष्ण ने रथ को बीच में खड़ा कर दिया। अर्जुन ने जब चारों तरफ देखा तो एक तरफ भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य और दूसरी तरफ अपने भाई-बंद, चचेरे भाई, साले-संबंधी, मित्र, रिश्तेदार सब दिखाई दिए।
अब सोचिए, जिसके सामने अपना ही खानदान खड़ा हो, वह कैसे बाण चलाए? अर्जुन का मन करुणा से भर गया।
करुणा और संवेदनशीलता
अर्जुन केवल एक योद्धा नहीं थे, वे संवेदनशील भी थे। उन्होंने सोचा –
“इन सबको मारकर मुझे क्या मिलेगा? राज्य, सुख, ऐश्वर्य सब बेकार है अगर अपने ही लोग नहीं रहेंगे।”
उनके हाथ-पाँव ढीले पड़ गए, शरीर कांपने लगा, आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने अपना धनुष गांडीव नीचे रख दिया।
यह हमें सिखाता है कि भावनाएँ होना कमजोरी नहीं है, बल्कि इंसानियत की निशानी है।
नैतिक द्वंद्व – धर्म बनाम संबंध
अर्जुन के सामने दो रास्ते थे।
एक, वे युद्ध करें तो अपने बड़ों और रिश्तेदारों का वध होगा।
दूसरा, वे युद्ध छोड़ दें तो अधर्म और अन्याय कायम रहेगा।
आज भी हम ऐसे हालात से गुजरते हैं। खेत-खलिहान में, नौकरी-धंधे में, परिवार में – कभी-कभी कर्तव्य और भावनाओं के बीच हमें भी यही दुविधा होती है।
पाप का भय
अर्जुन ने मन में सोचा – “रिश्तेदारों को मारूँगा तो कुलधर्म नष्ट होगा। समाज में अराजकता फैलेगी। स्त्रियों का पतन होगा, संतानें बिगड़ जाएँगी।”
उन्होंने निश्चय किया कि पाप से बचने के लिये युद्ध छोड़ना ही अच्छा है। यह सोच एक सामान्य इंसान की भी होती है – जब कोई काम हमारे मन को भारी लगे, तो हम उससे भागना चाहते हैं।
मोह की स्थिति
गीता में इस अवस्था को मोह कहा गया है। मोह यानी जब मन भावनाओं में इतना उलझ जाए कि बुद्धि सही-गलत न देख पाए। अर्जुन की बुद्धि भी ढँक गई थी।
यही वजह थी कि कृष्ण मुस्कुराए। उन्हें पता था कि अर्जुन अब ज्ञान पाने के लिये तैयार हो रहे हैं।
श्रीकृष्ण का धैर्य
कृष्ण ने तुरंत उपदेश नहीं दिया। वे अर्जुन की सारी बातें सुनते रहे। इससे हमें ये सीख मिलती है कि जब किसी को सलाह देनी हो, पहले उसकी बात समझनी चाहिए।
अर्जुन ने अपने दिल की सारी बातें बाहर निकालीं। ये बहुत जरूरी था। कोई भी समस्या हल करने के लिये पहले उसे बोलना ज़रूरी है।
आत्मसमर्पण – पहला कदम
आखिर में अर्जुन ने कहा –
“हे कृष्ण! मैं आपका शिष्य हूँ। मुझे सही मार्ग दिखाइए।”
तभी श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देना शुरू किया।
यह दिखाता है कि जब हम सच में मार्गदर्शन चाहते हैं, तभी ज्ञान का दरवाजा खुलता है।
गीता का पहला संदेश – कर्तव्य और कर्म
कृष्ण ने अर्जुन से कहा –
“हे अर्जुन! जो भी हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा। उठो, अपने कर्तव्य का पालन करो। निष्काम भाव से कर्म करो।”
इससे हमें सिखाई मिलती है कि काम करते रहना ही धर्म है। फल की चिंता किये बिना अपने कर्म को निभाना ही जीवन का सार है।
गाँव की बोली में सीख
भाई, हमारी ज़िंदगी भी कोई कम कुरुक्षेत्र नहीं है। खेत-खलिहान, घर-गृहस्थी, नौकरी-धंधा – हर जगह कभी न कभी हम भी ऐसे मोड़ पर आते हैं जहां दिल कुछ कहता है, दिमाग कुछ और।
जब खेत में काम ज्यादा हो जाता है, बारिश समय पर न हो, घर में झगड़े हों, पैसों की तंगी हो – ऐसे वक्त में भी हमें अर्जुन की तरह अपने “कृष्ण” को सुनना चाहिए।
वो “कृष्ण” बाहर कोई व्यक्ति भी हो सकता है – गुरु, बुज़ुर्ग, या फिर हमारे अंदर की आवाज़।
जब तक हम अपने मन की बात साफ-साफ नहीं कहेंगे, तब तक हल नहीं मिलेगा। पहले अपनी उलझन को स्वीकार करो, फिर विवेक से सोचो, फिर सही कदम उठाओ।
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| श्रीकृष्ण का उपदेश – ज्ञान और मार्गदर्शन का महत्व |
पाँच मुख्य सीखें – गीता की भाषा, गाँव की सोच
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भावनाओं को दबाना नहीं, समझना
अर्जुन ने अपनी उलझन को छुपाया नहीं। उन्होंने खुलकर कहा। यही पहला कदम है।
हम भी घर-परिवार में जब परेशानी हो, तो चुप न रहें, बात करें। -
नैतिक द्वंद्व स्वाभाविक है
जब भी बड़ा निर्णय लेना होता है, हम सब भी अर्जुन की तरह सोच में पड़ जाते हैं। यही द्वंद्व हमें सही रास्ता खोजने को प्रेरित करता है। -
मार्गदर्शन लेना जरूरी है
जब मन भ्रमित हो, तो किसी ज्ञानी से या अपने अंदर की आवाज़ से मार्गदर्शन लेना चाहिए।
गाँव में भी बुज़ुर्ग या पंडितजी की राय ली जाती है, उसी तरह। -
सही निर्णय विवेक से ही संभव है
भावनाओं में बहकर लिये गए निर्णय अक्सर गलत होते हैं। इसलिए पहले मन शांत करना, फिर सोच-समझकर फैसला करना जरूरी है। -
कर्तव्य से भागना समाधान नहीं
अर्जुन का पहला विचार था कि युद्ध छोड़ दूँ। लेकिन कृष्ण ने बताया – अपने कर्तव्य से भागना ही सबसे बड़ा पाप है।
गाँव में भी अगर कोई खेत में हल चलाना छोड़ दे तो फसल कैसे होगी? उसी तरह कर्तव्य से भागोगे तो जीवन कैसे चलेगा?
आज के समय में अर्जुन और कृष्ण
आज के दौर में हमारा “कुरुक्षेत्र” हमारी पढ़ाई, नौकरी, रिश्ते या समाज की उलझनें हैं।
हमारे “दुर्योधन” वे हालात हैं जो हमें गलत रास्ते पर धकेलते हैं।
हमारे “कृष्ण” वे लोग हैं जो हमें सही सलाह देते हैं, या हमारी अपनी अंतरात्मा है।
अगर हम अर्जुन की तरह अपनी दुविधा मानेंगे और कृष्ण की तरह सही ज्ञान अपनाएँगे, तो हर संकट से निकल सकते हैं।
निष्कर्ष
अर्जुन का हिचकिचाना कोई कमजोरी नहीं था। यही तो उनकी इंसानियत थी। उसी दुविधा ने हमें गीता जैसी अमूल्य शिक्षा दी।
अगर अर्जुन तुरंत युद्ध कर लेते, तो हमें गीता का उपदेश नहीं मिलता।
कृष्ण ने सिखाया कि –
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जब जीवन में भ्रम हो
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जब सही-गलत समझ न आए
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जब दिल-दिमाग में टकराव हो
तब शांत होकर अपने भीतर झाँको और फिर विवेक से फैसला लो।
हम सबके अंदर भी एक “कृष्ण” है, एक मार्गदर्शक। उसे सुनना सीखो। यही श्रीमद्भगवद्गीता का सार है।
कर्तव्य से मत भागो, कर्म करते रहो, यही सच्चा धर्म है।
यह लेख राष्ट्र रिपोर्ट द्वारा अवतरित किया गया
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